वैशेषिक दर्शन में सात पदार्थ हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय एवं अभाव।
तत्र द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावाः सप्त पदार्थाः।
इन सात पदार्थों में दूसरा पदार्थ है-गुण । गुण चौबीस है- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार।
रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोग-
विभागपरत्वापरत्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहशब्द-
बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारा-
श्चतुर्विंशतिगुणाः।
इन्हीं चौबीस गुणों में से एक गुण बुद्धि है। बुद्धि को ही ज्ञान कहा जाता है। बुद्धि आत्मा का विशेष गुण है एवं इसका समवायि कारण आत्मा है। बुद्धि का असमवायिकारण आत्ममनः संयोग है (आत्मा और मन का संयोग) है। तर्कसंग्रह में बुद्धि को परिभाषित करते हुये कहा गया है कि सभी प्रकार के व्यवहार का हेतु (कारण) गुण ज्ञान या बुद्धि है। वह दो प्रकार की होती है-स्मृति तथा अनुभव।
सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम्। सा द्विविधा-स्मृतिरनुभवश्च।
यहाँ अन्नमभट्ट ने इस जीवन के समस्त प्रकार के व्यवहार के कारण रूप गुण को बुद्धि कहा है।
अन्नमभट्ट ने दीपिका में बुद्धि का लक्षण किया है कि ’जानामि’ इस अनुव्यवसाय से गम्य होने के कारण वह (बुद्धि) ज्ञानत्व है। यहाँ व्यवसाय से तात्पर्य विषय के ज्ञान से है जैसे- अयं घट: (यह घड़ा है।) अनुव्यवसाय का अर्थ व्यवसाय का ज्ञान है जैसे-घटमहं जानामि (घड़े को मैं जानता हूँ/ जानती हूँ)
जानामीत्यनुव्यवसायगम्यज्ञानत्वमेवलक्षणमिति।
इसी व्यवसाय और अनुव्यवसाय की सामान्य जाति को ज्ञानत्व कहते हैं। यह ज्ञानत्व ही जिसमें प्रतिष्ठित है वही बुद्धि है।
अन्नमभट्ट ने तर्कसंग्रह में बुद्धि के दो भेद बताये हैं स्मृति एवं अनुभव। नैयायिकों ने इन भेदों को विद्या और अविद्या कहा है।
स्मृति
संस्कार मात्र से उत्पन्न ज्ञान स्मृति है।
संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः।
वस्तु के प्रत्यक्ष से ज्ञान प्रथम क्षण में उत्पन्न होता है, द्वितीय क्षन में रहता है और तृतीय क्षण में नष्ट हो जाता है। पूर्व में अनुभूत (जाने गये) किसी वस्तु के ज्ञान के बाद जब हमें पुनः वैसी ही किसी वस्तु का दर्शन होता है तब पहले अनुभव की गयी वस्तु का जो ज्ञान है वह स्मृति कहलाता है। उदाहरणस्वरूप किसी को मार्ग मेंम् जाते देखर आपमें आपके साथ माध्यमिक स्तर (12th ) में पढ़ा किसी सहपाठी की स्मृति जाग उठे। इसमें हुआ ज्ञान स्मृति है। इसमें क्सी बाह्य इन्द्रिय की आवश्यकता नहीं पड़ी परन्तु पूर्व के सहपाठी का स्मर्ण हो गया। उसका ज्ञान हो गया। स्मृति सदैव उसी विषय की होती है जो पूर्वज्ञात है-
ज्ञातविषयं ज्ञानं स्मृतिः।
स्मृति के कारण ही संस्कार जागता है। इसीलिये यहाँ स्मृति के लक्षण में ’संस्कारमात्रजन्यं’ शब्द का प्रयोग किया गया है। स्मृति में एकमात्र संस्कार ही प्रमुख कारण है। स्मृति ज्ञान सदा पहले के अनुभव के संस्कार पर आधारित होता है। स्मृति के लिये उसी वस्तु का प्रत्यक्ष अनिवार्य नहीं है। स्मृति पूर्व में अनुभूत विषय के संस्कारवश उत्पन्न होने वाला ज्ञान है।
अनुभव
स्मृति से भिन्न समस्त प्रकार के ज्ञान अनुभव हैं। अनुभव दो प्रकार का होता है-यथार्थानुभव, अयथार्थानुभव।
तद्भिन्नं ज्ञानमनुभवः। स द्विविधः-यथार्थोऽयथार्थश्च।
स्मृति ज्ञान मात्र पूर्व अनुभव के संस्कार से उत्पन्न होता है जबकि अनुभव प्रमाण के बाद अथवा प्रमाण के द्वारा उत्पन्न ज्ञान है। अनुभव ज्ञान पुराना होता है परन्तु समयानुसार उसका प्रकटीकरण नवीन होता है।
यथार्थानुभव
तर्कसंग्रह में अन्नमभट्ट ने यथार्थ अनुभव का लक्षण दिया है-
तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवो यथार्थ:। (यथा रजते ’इदं रजतम्’ इति ज्ञानम्)। सैव ’प्रमा’ इत्युच्यते।
अर्थात् जो वस्तु जिस रूप में हो उसका उसी रूप में अनुभव यथार्थ (अनुभव)है। जैसे”रजत’ अर्थात् चाँदी में ’यह रजत (चाँदी) है’ ऐसा ज्ञान (चाँदी को देखकर यह ज्ञान की यह चाँदी है)। वही प्रमा अर्थात् प्रामाणिक ज्ञान कहलाता है।
यथार्थ अनुभव चार प्रकार का है- प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति तथा शाब्द। इसके करण (जानने का साधन) भी चार प्रकार के हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द।
यथार्थानुभवश्चतुर्विधः – प्रत्यक्षाऽनुमित्युपमितिशाब्दभेदात्।
तत्करणमपि चतुर्विधम् – प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दभेदात्।
वैशेषिक दर्शन प्रथम दो प्रमाण-प्रत्यक्ष एवं अनुमान को ही मानता है। परन्तु चूंकि तर्कसंग्रह न्याय-वैशेषिक का संयुक्त ग्रन्थ है इसलिये तर्कसंग्रहकार अन्नमभट्ट ने न्याय के प्रमाणॊं को स्वीकार करते हुये तर्कसंग्रह में चार प्रमाण बताये हैं। प्रमाण यथार्थ ज्ञान का साधन है।
यथार्थानुभवः प्रमा
अर्थात् यथार्थ अनुभव प्रमा है
न्याय-वैशेषिक परतः प्रमाणवादी दर्शन हैं क्योंकि ज्ञान की प्रामाणिकता के लिये इनकी निर्भरता किसी दूसरे साधन पर रहती है।
प्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष वह ज्ञान है जो इन्द्रिय और विषय अथवा पदार्थ के सन्निकर्ष अर्थात् संयोग से उत्पन्न होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान का करण (साधन) प्रत्यक्ष है। वह दो प्रकार का होता है- निर्विकल्पक (प्रत्यक्ष), सविकल्पक (प्रत्यक्ष)
तत्र प्रत्यक्षज्ञानकरणं प्रत्यक्षम्। इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षम्। तद् द्विविधम्- निर्विकल्पकं सविकल्पकं चेति।
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष
वस्तु का केवल स्वरूप ग्रहण करने वाला ज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। जिसमें वह वस्तु क्या है इसका निष्कर्ष न निकल सके। निष्प्रकारक ज्ञान निर्विकल्पक है। जैसे-’यह कुछ है’।
तत्र निष्प्रकारकं ज्ञानं निर्विकल्पकम्। यथा-किञ्चिदिदमिति।
किसी वस्तु को देखने पर तत्काल जो ज्ञान उत्पन्न होता है कि यह कुछ है। इन्द्रिय और वस्तु के संयोग से जो प्रथम क्षण में उत्पन्न ज्ञान है, वही निर्विकल्पक ज्ञान है। इसमें वस्तु के नाम, जाति, गुण आदि का ज्ञान नहीं होता। इस निर्विकल्पक ज्ञान की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती । अभिव्यक्ति होते ही ज्ञान सविकल्पक हो जायेगा।
सविकल्पक प्रत्यक्ष
सप्रकारक ज्ञान सविकल्पक है। जिसे यह डित्थ है, यह ब्राह्मण है, यह श्याम है।
सप्रकारकं ज्ञानं सविकल्पकम्, यथा-डित्थोऽयं ब्राह्मणोऽयं श्यामोऽयमिति।
नाम, गुण, जाति से युक्त ज्ञान सविकल्पक है। सविकल्पक ज्ञान विशेष्य-विशेषण सम्बन्ध को ग्रहण करने वाला है। सविकल्पक प्रत्य्क्ष से किसी वस्तु और उसके गुणों का स्पष्ट ज्ञान होता है। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के बाद सविकल्पक प्रत्यक्ष होता है और वस्तु का यथार्थ अनुभव, वास्तविक ज्ञान होता है।
इन्दिय का विषय से सम्पर्क होते ही सभी धर्म स्पष्ट नहीं होते अतः यह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता है परन्तु जैसे ही धर्म स्पष्ट हो जाते हैं प्रत्यक्ष सविकल्पक हो जाता है और वस्तु का यथार्थ अनुभव अर्थात् वास्तविक ज्ञान हो जाता है।
इन्दिय का विषय के साथ सन्निकर्ष (सम्पर्क द्वारा ग्रहण) में उसके द्रव्य, गुण, जाति आदि से भी सन्निकर्ष होता है तथा उसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।यह प्रत्यक्षज्ञान का हेतु इन्द्रिय एवं पदार्थ का सन्निकर्ष छः प्रकार का है- संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्तसमवेतसमवाय, समवाय, समवेतसमवाय, विशेषण-विशेष्यभाव।
प्रत्यक्षज्ञानहेतुरिन्द्रियार्थसन्निकर्षः षड्विधः-संयोगः, संयुक्तसमवायः, संयुक्तसमवेतसमवायः, समवायः, समवेतसमवाय, विशेषणविशेष्यभवश्चेति।
यही षड्विधसन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है। यह प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा उत्पन्न होता है ।
इन्द्रियों का विषय से सन्निकर्ष में उसके द्रव्य, गुण, जाति आदि सभी से सन्निकर्ष होता है ।इस इन्द्रियार्थसन्निकर्ष द्वारा जानने योग्य पदार्थ का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । प्रत्यक्ष ज्ञान इन छः सन्निकर्षों के द्वारा ही संभव होता है । प्रत्यक्ष ज्ञान का करण इन्द्रिय हैं । इसीलिए इन्द्रिय को ही प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जाता है ।
अनुमान
अनुमान न्याय-वैशेषिक का दूसरा प्रमाण है। भारतीय दर्शन की प्रमाणमीमांसा में अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है।
अनुमिति का करण अनुमान है। अर्थात् अनुमान अनुमिति का साधन है।
अनुमितिकरणमनुमानम्
अब प्रश्न उठता है कि अनुमिति क्या है? परामर्श से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनुमिति है।
परामर्शजन्यं ज्ञानमनुमितिः।
अब प्रश्न उठता है कि ‘परामर्श’ क्या है? ‘परामर्श’ किसके कहते हैं? तो ‘व्याप्ति से विशिष्ट पक्षधर्मता ज्ञान को परामर्श कहते हैं । जैसे-अग्नि से व्याप्त यह पर्वत धूमवान् है’। –
व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञानं परामर्शः। यथा-वह्निव्याप्यधूमवानयं पर्वत’ इति ज्ञान परामर्शः ।
उस परामर्श से उत्पन्न ज्ञान कि ‘पर्वत वह्निमान् है’ अर्थात् ‘पर्वत पर आग है’ यह ज्ञान अनुमिति है।
तज्जन्यं ‘पर्वतो वह्निमानि’ ति ज्ञानमनुमितिः।
यहाँ पूर्व में एक शब्द’ व्याप्ति ‘का प्रयोग हुआ है अतः उसे भी जान लेना आवश्यक है।’ जहाँ – जहाँ धूम (धुआँ) है, वहाँ – वहाँ अग्नि है’ – यह साहचर्य नियम व्याप्ति है। अर्थात् लोक में यह अनुभव सिद्ध है कि धुआँ आग की उपस्थिति में ही होता है ।इसलिए दोनों का संबंध सिद्ध है। यही व्याप्ति है।
‘ यत्र-यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरि’ति साहचर्यनियमो व्याप्तिः।
यहाँ एक अन्य शब्द का भी प्रयोग हुआ है – पक्षधर्मता।अतः उसे भी जानना आवश्यक है। व्याप्य का पर्वतादि में रहना पक्षधर्मता है।
व्याप्यस्य पर्वतादिवृत्तित्वं पक्षधर्मता।
पक्षधर्मताज्ञान और व्याप्तिज्ञान दोनों के सम्मिलन से दो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे ही परामर्श कहते हैं और परामर्श के द्वारा उत्पन्न ज्ञान अनुमान है।
अनुमान दो प्रकार का होता है – स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान
अनुमानं द्विविधम्-स्वार्थं परार्थञ्च।
स्वार्थानुमान
स्वार्थानुमान अपने अनुमिति ज्ञान का हेतु है।
तत्र स्वार्थं स्वानुमितिहेतुः
अर्थात् जो अनुमान अपने स्वयं के ज्ञान के लिये किया जाय वह अनुमान स्वार्थानुमान है। जैसे कोई व्यक्ति स्वयं ही बारम्बारर देखकर ‘जहाँ – जहाँ धुआँ है वहाँ – वहाँ अग्नि है’ अर्थात् जहाँ – जहाँ धुआँ होता है वहाँ – वहाँ अग्नि होती है इसप्रकार महानस अर्थात् रसोईं आदि (अग्नि के स्थानों में) में व्याप्ति को ग्रहण करके पर्वत के समीप जाकर उसमें अग्नि का (अर्थात् वहाँ आग है ऐसा) संदेह होने पर पर्वत में धुयें को देता हुआ’ जहाँ – जहाँ धूम है, वहाँ – वहाँ अग्नि है’ इस व्याप्ति का स्मरण करता है । इसके बाद यह पर्वत अग्नि से व्याप्त धूमवान् है’यह ज्ञान (उसमें) उत्पन्न होता है ।यही (ज्ञान) लिंगपरामर्श कहलाता है। (यहाँ लिंग का अर्थ चिह्न है) ।इस (ज्ञान) से पर्वत वह्निमान् है, अर्थात् पर्वत पर अग्नि है, यह अनुमिति ज्ञान उत्पन्न होता है । यह(ज्ञान) स्वार्थानुमान है। क्योंकि यहाँ ज्ञान स्वयं को हुआ है और स्वयं के ज्ञान के लिये अनुमान का प्रयोग किया गया है ।
परार्थानुमान
जहाँ अनुमान अपने स्वयं के लिये नहीं अपितु किसी दूसरे को बताने अयवतवा समझाने के लिये किया जाता है ।वहाँ परार्थानुमान होता है ।इस अनुमान में पञ्चावयव वाक्य का प्रयोग होता है ।
जिसमें स्वयं धुयें से अग्नि का अनुमान करके दूसरे को समझाने के लिये पञ्चावयव वाक्य का प्रयोग किया जाता है ।वह परार्थानुमान है।
यत्तु स्वयं धूमादग्निमनुमाय परं प्रति बोधयितुं पञ्चावयववाक्यं प्रयुज्यते तत्परार्थानुमानम्
दूसरों को बताने, समझाने और बोध कराने के लिये परार्थानुमान का प्रयोग किया जाता है । जैसे-पर्वत अग्नि से युक्त है क्योंकि यह धुयें से युक्त है, जो-जो धुयें से युक्त होता है नह-वह वह्निमान् अर्थात् अग्नि से युक्त होता है।जैसे- महानस (रसोईं) उसी प्रकार यह (यहाँ) है।अतः इसमें (इस पर्वत में भी) भी वैसे ही अग्नि है (जैसे रसोईंमें) । इसप्रकार प्रतिपादित लिंग (चिह्न) से दूसरा (व्यक्ति) भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है ।
यथा-‘पर्वतो वह्निमान्, धूमवत्त्वात्, यो यो धूमवान् स च वह्निमान् यथा महानसम्, तथा चायम्, तस्मात्तथेति’ अनेन प्रतिपादिताल्लिङ्गात् परोऽप्यग्निं प्रतिपद्यते।
इसप्रकार अनुमिति ज्ञान के दो प्रकार हैं – स्वार्थानुमिन एवं परार्थानुमान।स्वाल्थानुमान वह है जिसमें ज्ञान स्वयं को होता है और परार्थानुमान वह है जिसमें व्यक्ति पञ्चावयव वाक्य के माध्यम से किसी दूसरे को ज्ञान करवाता है।
उपमान
न्यायदर्शन का तीसरा प्रमाण उपमान है। तर्कसंग्रह में न्याय दर्शन के ही प्रमाणों का ग्रहण किया गया है ।उपमान क्या है? उपमिति का करण उपमान है।
उपमितिकरणमुपमानम्
अब प्रश्न उठता है कि उपमिति क्या है? इसे भी तर्कसंग्रह में परिभाषित किया गया है ।संज्ञा (किसी वस्तु का नाम) तथा संज्ञी (वस्तु जिसका नाम अथवा संज्ञा होती है) के सम्बन्ध को उपमिति कहते हैं ।
संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमितिः
उसका (उपमिति का) करण सादृश्यज्ञान है। प्रामाणिक व्यक्ति द्वारा कहे हुये वाक्यार्थ का स्मरण अवान्तर व्यापार है।
तत्करणं सादृश्यज्ञानम्।अतिदेशवाक्यार्थस्मरणमवान्तरव्यापारः।
अतः अतिदेश वाक्य अर्थात सादृश्य बताने वाला वाक्य वह है जिसके द्वारा एक पदार्थ के झर्म को दूसरे में दिखाया जाता है । इसका उदाहरण देते हैं कि – कोई गवय शब्द के अर्थ को जाने बिना (गवय शब्द के अर्थ से अनभिज्ञ) किसी वनवासी से ‘गाय के सदृश गवय होता है’ यह सुनकर वन में जाता हुआ वाक्य के अर्थ को स्मरण करते हुये गाय जैसे पिण्ड (शरीराकृति) को देखता है। तदनन्तर ‘यह गवय शबकद से वाच्य है’ यह उपमिति उत्पन्न होती है ।अर्थात् यह गवय है यह ज्ञान उत्पन्न होता है ।
तथा हि कश्चिद् गवयशब्दार्थमजानन् कुतश्चिदारण्यकपुरुषात् ‘गोसदृशो गवयः’ इति श्रुत्वा, वनं गतो वाक्यार्थं स्मरन् गोसदृशं पिण्डं पश्यति। तदनन्तरम् ‘असौ गवयशब्दवाच्यः’इत्युपमितिरुत्पद्यते।
यहाँ पर एक व्यक्ति जो गवय अर्थात् नीलगाय को नहीं जानता है। परन्तु उसने किसी वनक्षेत्र के निवासी से सुन रखा है कि गवय (नीलगाय) गाय के जैसी दिखती है। अतः वनक्षेत्र में जाने पर एब उसे गाय जैसा एक पशु दिखाई पड़ता है ।जो गाय नहीं है।तो उसे देखकर उस व्यक्ति को वनक्षेत्र के निवासी का वचन याद आता है कि गवय गाय जैसा होता है। अतः उसे इस आधार पर ज्ञान हो जाता है कि यह पशु गवय (नीलगाय) है।
शब्द
न्याय दर्शन स्वीकृत चतुर्थ प्रमाण शब्द है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान एवं उपमान यथार्थज्ञान में साधक है उसी प्रकार शब्द भी यथार्थज्ञान में साधक है।
आप्त (व्यक्तियों) का वाक्य शब्द (प्रमाण) है।
आप्तवाक्यं शब्दः।
यथार्थवक्ता अर्थात् सत्य बोलने वाले को आप्त कहा गया है।
आप्तस्तु यथार्थवक्ता।
सत्य बोलने वाला वक्ता जो वाक्य बोलता है वह शब्द है। वाक्य क्या है? वाक्य पदों का समूह है।अर्थात् पदों के समूह को वाक्य कहते हैं (जिसमें अर्थबोध करवाने की क्षमता हो) ।जैसे-गाय लाओ। शक्त अर्थात् शक्ति से युक्त (सामर्थ्यवान्) पद है अर्थात् पद वह है जो (अर्थबोध में) शक्त हो, (अर्थबोध करवाने में सक्षम हो) । इसपद से इस अरथ का बोध करना चाहिये। इसप्रकार का ईश्वरसंकेत ही शक्ति है।
यथा-गामानयेति। शक्तं पदम्। अस्मातपदादयमर्थो बोद्धव्य इतीश्वरसंकेतः शक्तिः।
जो पदार्थ जैसा है उसको उसी रूप में सही-सही बताने वाला व्यक्ति आप्तवक्ता है और उस के द्वारा कहा गया वचन आप्तवाक्य/आप्तवचन है। आप्तवक्ता को यथार्थवक्ता और आप्तवाक्य को यथार्थवाक्य भी कह सकते हैं। पद वह है जिससे विशेष अर्थ का ज्ञान हो अथवा जो विशेष अर्थ का बोध कराने में सक्षम हो। वाक्य पदों का समूह है। जिसमें पद मिलकर किसी वस्तु अथवा पदार्थ का बोध करवाते हैं। वाक्य से होने वाला ज्ञान ही शाब्दबोध अर्थात् वाक्यार्थज्ञान है।
पद में अर्थ प्रकाशन की शक्ति के द्वारा ह्यी अर्थ का ज्ञान होता है। पद में अर्थ की अभिव्यक्ति ईश्वरसंकेत से ही सम्भव है। ईश्वरसंकेत के कारण ही यह ज्ञान होता है कि किस पद का क्या अर्थ होगा? इसी ईश्वरसंकेत को यहाँ पर शक्ति बताया गया है। यह शक्ति वस्तुतः अभिधा शक्ति ही है।
किसी भी वाक्यार्थ के ज्ञान के लिये आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि का होना बहुत आवश्यक है। इनके बिना अथवा इनमें से किसी एक के बिना वाक्यार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता ।
आकांक्षा, योग्यता औरव् सन्निधि वाक्यार्थज्ञान का हेतु है। अर्थात् वाक्य का अर्थ जानने में आकाङ्क्षा, योग्यता और सन्निधि ये तीनों कारण हैं।
आकाङ्क्षा-योग्यता-सन्निधिश्च वाक्यार्थज्ञाने हेतु:।
अब प्रश्न उठता है कि यहा आकाङ्क्षा, योग्यता और सन्निधि है क्या? एक पद का दूसरे अर्थ के विना प्रयुक्त होने पर शाब्दबोध करवाने की असमर्थता आकाङ्क्षा है। (अर्थात् किसी अन्य शब्द के न आने से किसी शब्द की पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति न हो पाना)।
पदस्य पदान्तरव्यतिरेकप्रयुक्तान्वयाननुभावकत्वमाकाङ्क्षा।
अर्थ में बाधा का न होना अथवा अर्थ में बाधा का अभाव योग्यता है। पदों के अविलम्भ (बिना देरे किये) उच्चरण को सन्निधि कहते हैं। बिना इन तीनों के कोई भी पदसमूह वाक्य नहीं बन सकता।
अर्थाबाधो योग्यता। पदामानविलम्बेनोच्चारणं सन्निधिः। तथा चाकाङ्क्षादिरहितं वाक्यमप्रमाणम्।
अकाङ्क्षा, योग्यता और सन्निधि के बिना कोई भी पद समूह वाक्य नहीं कहलाता क्योंकि वह उचित शाब्दबोध नहीं करवाता। जैसे- गौ, अश्व, पुरुष, हस्ति (ये चारो पद अलग-अलग) यह प्र्माण नही है क्योंकि इनमें आकांङ्क्षा नहीं है (परस्पर अर्थबोध करवाने की क्षमता नहीं है)। ’आग से सींचे’ यह(वाक्य भी) प्रमाण नहीं है क्योंकि इसमें योग्यता नहीं है (आग से सिंचाई नहीं हो सकती, सिंचाई जल से होती है, यह लोकविरुद्ध है)। एक-एक प्रहर में कहे गये ’गाय लाओ’ इत्यादि (वाक्य भी) प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि इनमें सान्निध्य नहीं है। (कोई शब्द प्रातः नौ बजे कहा जाय और कोई सायं सात बजे तो उसमें सन्निधि न होने से वे वाक्य बनने की योगया नहीं रखते, इसलिये ऐसे शब्द भी प्र्मान नहीं हैं।)
यथा-गौरश्वः पुरुषो हस्तीति न प्रमाणम्, आकाङ्क्षाविरहात्। अग्निना सिञ्चेदिति न प्रमाणम्, योग्यताविरहात्। प्रहरे प्रहरेऽसहोच्चरितानि गामानयेत्यादिपदानि न प्रमाणम्, सान्निध्याऽभावात्।
इस प्रकार शाब्दज्ञान/ वाक्यार्थज्ञान हेतु आकांक्षा, योग्या एवं सन्निधि का होना अपरिहार्य है।
शब्दप्रमाण वाक्यार्थज्ञान हेतु प्रयुक्त वाक्य के दो भेद हैं- वैदिक (वाक्य) और लौकिक (वाक्य) ईश्वर का वचन होंने के कारण समस्त वैदिक वाक्य प्रमाण हैं। लौकिक वाक्य तो आप्त (व्यक्ति) के द्वारा उक्त (कहे जाने से) प्रमाण हैं, अन्य (कोई भी लौकिक वाक्य) प्रमाण नहीं है।
वाक्यं द्विविधम्-वैदिकं लौकिकञ्च। वैदिकमीश्वरोक्तत्वात् सर्वमेव प्रमाणम्। लौकिकं त्वाप्तोक्तं प्रमाणम्। अन्यदप्रमाणम्।
यही वाक्यार्थ ज्ञान शब्द का ज्ञान /शाब्दज्ञान है । इस शाब्दज्ञान का करण शब्द है।
वाक्यार्थज्ञानं शाब्दज्ञानम्। तत्करणं शब्द:।
शाब्दज्ञान का करण शब्द है। इसप्रकार शाब्दज्ञान में शब्द ही प्रमाण है।
इस प्रकार नैयायिकों ने प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति और शाब्द इन चार प्रकार के ज्ञान को माना है और इनके ज्ञान हेतु प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाण बताये हैं।
अयथार्थानुभव
तर्कसंग्रह में अयथार्थानुभव को परिभाषित किया है कि-
तदभाववति तत्प्रकारकोऽनुभवोऽयथार्थः। (यथा शुक्तौ ’इदं रजतम्’ इति ज्ञानम्)। सैवाप्रमेत्युच्यते।
अर्थात् जो वस्तु जिस रूप में न हो उसे उस रूप में समझना अयथार्थ (अनुभव) है। जैसे शुक्ति अर्थात् सीपी (oyster) में ’यह रजत (चाँदी) है।’(शुक्ति को देखकर उसे चाँदी समझ लेना), ऐसा ज्ञान। वही अप्रमा अर्थात् अप्रामाणिक ज्ञान कहलाता है।
तर्ककौमुदी में प्रमा-अप्रमा की परिभाषा है-
अयथार्थानुभवः अप्रमा
अयथार्थ अनुभव अप्रमा है।
अयथार्थानुभव अप्रमा है और वह तीन प्रकार का है-संशय, विपर्यय और तर्क।
अयथार्थानुभवस्त्रिविधः-संशयविपर्ययतर्कभेदात्।
संशय
एक धर्मी के विरोध में आना धर्मों की विशिष्टता से सम्बद्ध ज्ञान संशय है। उदाहरन के लिये यह स्थाणु (खम्भा) है अथवा पुरुष (कोई व्यक्ति) है।
एकस्मिन् धर्मिणि विरुद्धनानाधर्मवैशिष्ट्यावगाहि ज्ञानं संशयः।यथा-स्थाणुर्वा पुरुषो चेति।
अर्थात् एक वस्तु को देखते पर उसका कोई दूसरी वस्तु प्रतीत होना और ऐसी अवस्था में यह निश्चय न कर पाना कि वस्तुतः वह वस्तु क्या है संशय कहलाता है। जैसे दूर कहीं साड़ी उड़ती हुयी देखर इस दुविधा में पड़ जाना कि कोई महिला है वहाँ अथवा साड़ी है ? इस सन्दर्भ में किसी निष्कर्ष पर न पहुँच पाना संशय है।
विपर्यय
मिथ्या ज्ञान विपर्यय है। जैसे शुक्ति अर्थात् सीपी में चाँदी (रजत) का ज्ञान।
मिथ्याज्ञानं विपर्ययः। यथा शुक्ताविदं रजतमिति।
किसी वस्तु को कोई दूसरी वस्तु समझ लेना। किसी वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का ज्ञान होना विपर्यय है। जैसे रात के धुँधले प्रकाश में रस्सी को साँप समझकर भयभीत हो जाना।
तर्क
व्याप्य के आरोप से व्यापक का आरोप तर्क है। जैसे -जब अग्नि नहीं होती तब धुआँ नही होता।
व्याप्याऽऽपेण व्यापकारोस्तर्कः। यथा-यदा वह्निर्न स्यात्तर्हि धूमोऽपि न स्यादिति।
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